इस सप्ताह मुझे एक विलक्षण व्यक्तित्व और उनके प्रेरणादायी कृतित्व के बारे में जानने का मौका मिला. मैं उनसे इतना अधिक प्रभावित हुआ हूं कि इस सप्ताह का अपना यह कॉलम उन्हीं की स्मृति को समर्पित कर रहा हूं.
मुझे जयपुर लाइब्रेरी एण्ड इंफोर्मेशन सोसाइटी ने विश्व पुस्तक दिवास और किन्हीं स्वर्गीय मास्टर मोती लाल जी संघी की 139 वीं जयंती पर उनके द्वारा स्थापित श्री सन्मति पुस्तकालय में ‘पुस्तकों और सूचना स्रोतों के बदलते स्वरूप’ पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया था. मैं स्वीकार करता हूं कि इस आयोजन में जाने से पहले मुझे स्व. मास्टर जी के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. लेकिन वहां उनके बारे में जो जानकारी मुझे मिली, और फिर वहां से मिली पाठ्य सामग्री से उनके बारे में जो कुछ मैंने जाना, उसे आपसे साझा करना बहुत ज़रूरी लग रहा है.
मोती लाल जी का जन्म 25 अप्रेल 1876 को चौमू के एक सामान्य परिवार में हुआ था. छठी कक्षा तक की पढ़ाई करने के बाद वे जयपुर आ गए और यहां से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और फिर इण्टरमीजिएट तक पढ़े. अपनी पढ़ाई अधबीच में छोड़ पहले तो उन्होंने जीवन निर्वाह के लिए ट्यूशनें कीं और फिर कई स्कूलों में नौकरियां कीं. साठ साल की उम्र पूरी करने पर 30 साल की सरकारी नौकरी पूरी करने के बाद जब वे रिटायर हुए तो उनकी पेंशन बीस रुपये प्रतिमाह थी.
अपनी नौकरी के दौरान ही गणित विषय के इन मास्टर साहब को पुस्तकों से प्यार हो गया था और वे हर महीने कम से कम दस रुपये किताबों पर खर्च करने लगे थे. बहुत जल्दी उनके पास किताबों का एक अच्छा खासा संग्रह हो गया और उससे उन्होंने 1920 में अपने घर के पास सन्मति पुस्तकालय की स्थापना कर दी. अपनी नौकरी से बचे वक़्त में वे अपने दोस्तों और परिचितों के घर अपने पुस्तकालय की पुस्तकें लेकर जाते और उनसे उन्हें पढ़ने का अनुरोध करते. एक निश्चित समय के बाद वे उनके पास पहले दी गई किताब वापस लेने और नई किताब देने जाते. इस बीच अगर कोई वह किताब न पढ़ पाता तो वे उसे पढ़ने के लिए प्रेरित भी करते.
अपने रिटायरमेण्ट के बाद तो वे पूरी तरह से इस पुस्तकालय के ही होकर रह गए. उनका सारा समय पुस्तकालय में ही गुज़रता, सिर्फ भोजन करने ही अपने घर जाते. संसाधनों का अभाव था, इसलिए इस पुस्तकालय केपितु मातु सहायक स्वामी सखासब कुछ वे ही थे. वे ही बाज़ार जाकर किताबें खरीदते, उनको रजिस्टर में दर्ज़ करते, उनपर कवर चढ़ाते, पाठकों को इश्यू करते, और लौटी हुई किताबों को जमा करते. अगर ज़रूरत होती तो पाठक के घर किताब पहुंचाने में भी वे संकोच नहीं करते.
उनके पास जितने साधन थे उनके अनुसार वे नई किताबें खरीदते और पाठकों को सुलभ कराते. अगर ज़रूरत पड़ती तो किसी किताब की सौ तक प्रतियां भी वे खरीदते ताकि पाठकों की मांग की पूर्ति हो सके. उनके जीवन काल में इस पुस्तकालय में तीस हज़ार किताबें हो गई थीं. पुस्तकालय के संचालन के बारे में उनका अपना मौलिक और व्यावहारिक सोच था. नियम कम से कम थे. सदस्यों से न कोई प्रवेश शुल्क लिया जाता, न कोई मासिक या वार्षिक शुल्क, यहां तक कि कोई सुरक्षा राशि भी नहीं ली जाती थी. कोई पाठक जितनी चाहे किताबें इश्यू करवा सकता था. और जैसे इतना ही काफी न हो, किताब कितने दिनों के लिए इश्यू की जाएगी, इसकी भी कोई सीमा नहीं थी. उन्हें किसी अजनबी और ग़ैर सदस्य को भी किताब देने में कोई संकोच नहीं होता था. आपको किताब पढ़नी है तो रजिस्टर में अपना नाम पता लिखवा दीजिए और किताब ले जाइये! मास्टर मोती लाल जी का निधन 1949 में हुआ. लेकिन उनका बनाया श्री सन्मति पुस्तकालय अब भी उसी शान और उसी सेवा भाव से पुस्तक प्रेमियों की सेवा कर रहा है.
निश्चय ही आज के सन्मति पुस्तकालय के पीछे राज्य सरकार का वरद हस्त है और मास्टर साहब के प्रशंसक दानियों की उदारता का भी इसमें काफी बड़ा योगदान है. पुस्तकालय एक बड़े पाठक समुदाय की निस्वार्थ सेवा कर रहा है. समय के अनुसार इसने अपनी सेवाओं में काफी बदलाव और परिष्कार भी किया है. लेकिन मैं तो यहां मास्टर साहब और उनके जज़्बे को सलाम करना चाहता हूं. कहने की ज़रूरत नहीं कि जिस हिन्दी पट्टी में हम पुस्तक संस्कृति क
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इस सप्ताह मुझे एक विलक्षण व्यक्तित्व और उनके प्रेरणादायी कृतित्व के बारे में जानने का मौका मिला. मैं उनसे इतना अधिक प्रभावित हुआ हूं कि इस सप्ताह का अपना यह कॉलम उन्हीं की स्मृति को समर्पित कर रहा हूं.
मुझे जयपुर लाइब्रेरी एण्ड इंफोर्मेशन सोसाइटी ने विश्व पुस्तक दिवास और किन्हीं स्वर्गीय मास्टर मोती लाल जी संघी की 139 वीं जयंती पर उनके द्वारा स्थापित श्री सन्मति पुस्तकालय में ‘पुस्तकों और सूचना स्रोतों के बदलते स्वरूप’ पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया था. मैं स्वीकार करता हूं कि इस आयोजन में जाने से पहले मुझे स्व. मास्टर जी के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. लेकिन वहां उनके बारे में जो जानकारी मुझे मिली, और फिर वहां से मिली पाठ्य सामग्री से उनके बारे में जो कुछ मैंने जाना, उसे आपसे साझा करना बहुत ज़रूरी लग रहा है.
मोती लाल जी का जन्म 25 अप्रेल 1876 को चौमू के एक सामान्य परिवार में हुआ था. छठी कक्षा तक की पढ़ाई करने के बाद वे जयपुर आ गए और यहां से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और फिर इण्टरमीजिएट तक पढ़े. अपनी पढ़ाई अधबीच में छोड़ पहले तो उन्होंने जीवन निर्वाह के लिए ट्यूशनें कीं और फिर कई स्कूलों में नौकरियां कीं. साठ साल की उम्र पूरी करने पर 30 साल की सरकारी नौकरी पूरी करने के बाद जब वे रिटायर हुए तो उनकी पेंशन बीस रुपये प्रतिमाह थी.
अपनी नौकरी के दौरान ही गणित विषय के इन मास्टर साहब को पुस्तकों से प्यार हो गया था और वे हर महीने कम से कम दस रुपये किताबों पर खर्च करने लगे थे. बहुत जल्दी उनके पास किताबों का एक अच्छा खासा संग्रह हो गया और उससे उन्होंने 1920 में अपने घर के पास सन्मति पुस्तकालय की स्थापना कर दी. अपनी नौकरी से बचे वक़्त में वे अपने दोस्तों और परिचितों के घर अपने पुस्तकालय की पुस्तकें लेकर जाते और उनसे उन्हें पढ़ने का अनुरोध करते. एक निश्चित समय के बाद वे उनके पास पहले दी गई किताब वापस लेने और नई किताब देने जाते. इस बीच अगर कोई वह किताब न पढ़ पाता तो वे उसे पढ़ने के लिए प्रेरित भी करते.
अपने रिटायरमेण्ट के बाद तो वे पूरी तरह से इस पुस्तकालय के ही होकर रह गए. उनका सारा समय पुस्तकालय में ही गुज़रता, सिर्फ भोजन करने ही अपने घर जाते. संसाधनों का अभाव था, इसलिए इस पुस्तकालय के पितु मातु सहायक स्वामी सखा सब कुछ वे ही थे. वे ही बाज़ार जाकर किताबें खरीदते, उनको रजिस्टर में दर्ज़ करते, उनपर कवर चढ़ाते, पाठकों को इश्यू करते, और लौटी हुई किताबों को जमा करते. अगर ज़रूरत होती तो पाठक के घर किताब पहुंचाने में भी वे संकोच नहीं करते.
उनके पास जितने साधन थे उनके अनुसार वे नई किताबें खरीदते और पाठकों को सुलभ कराते. अगर ज़रूरत पड़ती तो किसी किताब की सौ तक प्रतियां भी वे खरीदते ताकि पाठकों की मांग की पूर्ति हो सके. उनके जीवन काल में इस पुस्तकालय में तीस हज़ार किताबें हो गई थीं. पुस्तकालय के संचालन के बारे में उनका अपना मौलिक और व्यावहारिक सोच था. नियम कम से कम थे. सदस्यों से न कोई प्रवेश शुल्क लिया जाता, न कोई मासिक या वार्षिक शुल्क, यहां तक कि कोई सुरक्षा राशि भी नहीं ली जाती थी. कोई पाठक जितनी चाहे किताबें इश्यू करवा सकता था. और जैसे इतना ही काफी न हो, किताब कितने दिनों के लिए इश्यू की जाएगी, इसकी भी कोई सीमा नहीं थी. उन्हें किसी अजनबी और ग़ैर सदस्य को भी किताब देने में कोई संकोच नहीं होता था. आपको किताब पढ़नी है तो रजिस्टर में अपना नाम पता लिखवा दीजिए और किताब ले जाइये! मास्टर मोती लाल जी का निधन 1949 में हुआ. लेकिन उनका बनाया श्री सन्मति पुस्तकालय अब भी उसी शान और उसी सेवा भाव से पुस्तक प्रेमियों की सेवा कर रहा है.
निश्चय ही आज के सन्मति पुस्तकालय के पीछे राज्य सरकार का वरद हस्त है और मास्टर साहब के प्रशंसक दानियों की उदारता का भी इसमें काफी बड़ा योगदान है. पुस्तकालय एक बड़े पाठक समुदाय की निस्वार्थ सेवा कर रहा है. समय के अनुसार इसने अपनी सेवाओं में काफी बदलाव और परिष्कार भी किया है. लेकिन मैं तो यहां मास्टर साहब और उनके जज़्बे को सलाम करना चाहता हूं. कहने की ज़रूरत नहीं कि जिस हिन्दी पट्टी में हम पुस्तक संस्कृति क